दुख का सामनानमूना
दुख के मध्य आशा
जब यीशु को यह समाचार मिला की लाजर बीमार हैं, तब यीशु की यह प्रतिक्रिया थी की “इस बीमारी का अंत मृत्यु नहीं हैं” नहीं, यह इसलिये हैं की परमेश्वर की महिमा हो और उसके द्वारा परमेश्वर के पुत्र की महिमा हो।”
दो दिन के उपरांत उस ने उनसे स्पष्टता से कहा, “लाजर की मृत्यु हो गयी हैं, और तुम्हारे कारण मुझे यह खुशी हैं की मैं वहाँ नहीं था, ताकि तुम विश्वास कर सको। लेकिन आओ हम उसके पास चले।
यीशु ने विलंब किया “कि वे विश्वास करें।” परमेश्वर के विलंब के पीछे कोई मकसद होता हैं। वो हमें विश्वास की अधिक गहराई में ले जाते हैं। उन्होंने पहले ही दिखा दिया हैं की वो चंगाई दे सकते हैं : अब वे उन्हें सिखा रहे हैं कि मृत्यु के ऊपर भी उनकी प्रभुता हैं। और यह तभी संभव होता जब वे विलंब करते।
क्या यह संभव हैं कि परमेश्वर के नियुक्त समय, जब लगे की परमेश्वर उपस्थिति नहीं हैं, वो आप को कुछ अधिक महत्वपूर्ण बात सिखाना चाहते हैं, कुछ अधिक अर्थपूर्ण, कुछ ऐसा जो आप पहले नहीं जानते थे?
क्या आप नम्र होकर उसे स्वीकार कर सकते हैं? क्या आप यह विश्वास कर सकते हैं कि जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सारी चीजों की सृष्टि की हैं, वो सामर्थी हैं और उनके पास कारण हैं कि आप के दुखों को आप के जीवन में आने की अनुमति दे, जो आप नहीं समझ पा रहे हैं। क्या यह बात आप को परमेश्वर पर और विश्वास करना सिखाती हैं, यह जानते हुए कि परमेश्वर अपने प्रेम, न्याय और प्रभुता में सिद्ध है, उन्हें शुरू से ही अंत का ज्ञान हैं, वे जानते हैं की वो क्या कर रहे हैं, तब भी जब आप उसे समझ नहीं सकते?
क्या आपने अपने प्रिय जन की चंगाई के लिए प्रार्थना की और तब भी उनकी मृत्यु हो गई?
आप सोचेंगे की सब खत्म हो गया। परंतु परमेश्वर कहते हैं “ इस से मेरे नाम की महिमा होगी। “क्या आप इस पर विश्वास करते हैं” ?
जब हम यूहन्ना १७:२४ पढ़ते हैं, तब ये शब्द हमारे दिलों के करीब और प्रार्थना पूर्ण चिंतन का विषय होना चाहिए, विशेषकर तब जब हमारे किसी प्रिय जन की मृत्यु होती हैं। यीशु की इच्छा पर ध्यान केंद्रित करें “ हे पिता, मैं चाहता हूँ कि, जिन्हें तू ने मुझे दिया हैं, जहाँ मैं हूँ वहाँ वे भी मेरे साथ हों कि वे मेरी उस महिमा को देखे जो तूने मुझे दी हैं, क्योंकि तू ने जगत की उत्पत्ति से पहले मुझसे प्रेम रखा।”
उनकी यह इच्छा हैं कि उनके सब लोग उनके साथ रहे। यीशु पूर्ण रूप से खुश और संतुष्ट हैं क्योंकि वे स्वर्ग से राज्य करते हैं। लेकिन यूहन्ना १७ में उनकी प्रार्थना के अनुसार यह उनकी निश्चित परंतु अधूरी इच्छा हैं : कि उनके लोग उनके साथ उस घर में शामिल हो जो उनके लिए आरंभ से ही तैयार किया हैं ( यूहन्ना १४:२-४ )।
प्रभु को जानने वाले किसी प्रिय जन की जब मृत्यु हो जाती हैं, तब हमें सर्वप्रथम यह याद रखना चाहिए की परमेश्वर ने यीशु की प्रार्थना सुन ली हैं। हमारे प्रियजन की मृत्यु पर भी परमेश्वर की प्रभुता हैं और उनके उद्देश्य हैं जिसे हम नहीं समझ पाएंगे, पर हम इस सत्य पर अडिग रह सकते हैं कि, यीशु ने अपने पिता से अपने लोगों को घर लाने के लिए प्रार्थना की हैं। जब किसी की मृत्यु होती हैं तो पिता अपने पुत्र की प्रार्थना का उत्तर देते हैं।
हम कम से कम यह कह सकते हैं : जब किसी प्रिय की मृत्यु होती हैं तो हमारे क्षति से ज्यादा, यीशु का लाभ होता हैं।
निश्चित हमारी क्षति होती हैं। हम फिर उस प्रिय के साथ संगति नहीं कर पायेंगे। हमारी हानि को हम शब्दों में बयान नहीं कर पायेंगे। परंतु यह हानि यीशु के शब्दों से बड़ी नहीं हैं “ हे पिता, मैं चाहता हूँ कि जिन्हें तू ने मुझे दिया हैं, जहाँ मैं हूँ वहाँ वे भी मेरे साथ हों।”
हम बाल्टी भर आँसू बहा सकते हैं, पर हमारे गाल से होकर बहने वाले आँसू मुस्कुराहट में बदल जाएंगे, जब हमें इस बात का एहसास होगा कि, हमारे प्रिय जन की मृत्यु असल में यीशु द्वारा की गई प्रार्थना के उत्तर से कम नहीं हैं।
यहाँ हम आशा देखते हैं।
उल्लेख:मसीही कभी “अलविदा” नहीं कहते, परंतु “ जब तक हम दुबारा नहीं मिलते।“ श्री वूडोर क्रोल
प्रार्थना : प्रभु जी मैं आप का धन्यवाद देता हूँ की दुख के मध्य भी मैं आशा पा सकता हूँ कि हम अपने प्रिय जनों से फिर मिलेंगे। आमीन
पवित्र शास्त्र
इस योजना के बारें में
जब हमारे किसी प्रियजन की मृत्यु होती हैं, हम में विभिन्न भावनाएँ होती हैं। इस १० दिन के मनन में, अपने दुख को संभालना सीखे, जब हमारा कोई प्रियजन प्रभु के पाए चला जाते हैं। मेरी यह प्रार्थना हैं की जैसे आप इस मनन को करते हैं , प्रभु इसे आप को प्रोत्साहित करे। शोक करना ठीक हैं। प्रश्न पूछना ठीक हैं।
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हम इस योजना को प्रदान करने के लिए विजय थंगैया को धन्यवाद देना चाहते हैं। अधिक जानकारी के लिये कृपया यहां देखें: https://www.facebook.com/ThangiahVijay