मन की युद्धभूमिनमूना

मन की युद्धभूमि

दिन 36 का 100

अपनी सोच पर विचार कीजिये

कुछ लोग बहुत ही नाखुश होते हैं, और वे इस प्रकार बहुत लम्बे समय से हैं, कि वे (लम्बे समय से) अब यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि और विकल्प भी है। मैं अच्छी रीति से स्मरण कर सकती हूं, जब मैं एसी थी। मैं अपनी नाखुशी का आरोप दूसरों के व्यवहार के ऊपर लगा देती थी। मैं सोचती थी कि मेरे पति और बच्चों के कारण मैं बहुत ही नाखुश हूँ। यदि वे थोड़ा बदल जाए और मेरी आवश्यकताओं के प्रति थोड़ा और संवेदनशील हो जाए, तो मैं जानती थी कि मैं और अच्छा महसूस करूँगी। यदि वे घर की कामों में मेरी सहायता करें, या केवल यह पूछ लें कि मैं कैसी हूँ और मैं कैसे कर रही हूँ, मैं जानती थी कि मैं खुश हो जाती। हां मैंने उनसे कभी कुछ नहीं कहा, यदि वे संवेदनशील और चिन्ता करनेवाले होते तो, मैंने सोचा, कि वे देख सकते हैं, कि वे कैसे मेरी सहायता कर सकते हैं और मेरे जीवन को और आसान बना सकते हैं।

मैंने इस विषय में प्रार्थना किया, और अक्सर मैंने परमेश्वर से कहा, कि मैं और अधिक आनन्दित होती यदि वे मेरे साथ सहयोग करते, लेकिन उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया।

एक दिन परमेश्वर ने मुझ से बात किया—परन्तु उन शब्दों के द्वारा नहीं जो मैं सुनना चाहती थी। उसने कहा, यह सोचो कि तुम क्या सोच रहे हो। मुझे नहीं मालूम था कि परमेश्वर का तात्पर्य क्या है। वास्तव में इस शब्द का कोइ अर्थ नहीं निकल रहा था। मैं केसे सोच सकती थी कि मैं क्या सोच रही हूँ।

तब मैंने सच्चाई को समझा। मेरा मन एक विचार से दूसरा विचार की ओर भाग रहा था। मेरे विचार बहुत ही बुरे थे। मेरे विचार में केवल मुझ तक और मेरे आवश्यकताओं तक केन्द्रित थे। मैंने सोचा था कि यदि मेरे जीवन में जो लोग है वे परिवर्तित हो जाते तो मैं प्रसन्न हो जाती। अन्ततः मैंने कठोरता पूर्वक विश्वास का अंगिकार किया। यदि वे बदल भी गए, तब भी मंै कुछ और कारण पा लूंगी कि मैं नाखुश हूँ। मैं नाखुश थी और इसके लिए कोई विशेष कारण की आवश्यकता नहीं थी। एक के बाद एक कारण आते जाते।

जब मैने अपने स्थिति पर विचार किया, प्रारम्भ किया, तब मैंने फिलिप्पियों 4ः8 के बारे में सोचा। यहां पौलुस ने उन बातों की सूची दी है, जिस पर हमें ध्यान केन्द्रित करना है। यदि परमेश्वर नहीं चाहता है कि जिन बातों के बारे में मैं सोच रही हूँ, न सोचूं, तो मुझे पहले यह जानना चाहिए कि मुझे क्या सोचना है। बहुत जल्द मैंने यह समझा कि झे कुछ सोचना है। यद्यपि मैं वषोर्ं से कलीसिया जा रही थी, मुझे नहीं मालूम कभी किसी ने मुझ से कहा हो कि अपने जीवन के विशेषता या योग्यता के लिए और परमेश्वर के लिए मेरे विचार कितने महत्वपूर्ण हैं।

यदि हम अपनी विचारों को अच्छी बातों की ओर केन्द्रित करते हैं, जैसा कि पौलुस ने इस पद में वर्णन किया है, तो हम बनते जायेंगे। हम आत्मिक रूप से उन्नति पाएगे और प्रभु में मजबूत बनेंगे।

जब मैंने परमेश्वर के सन्देशों पर लगातार ध्यान किया, तो मैंने यह समझा कि मेरे विचारों ने किस प्रकार से मेरे स्वभाव पर असर किया था, और यह उन सब के लिए भी सच है। परमेश्वर हम से कहता है कि हम ऐसी बातें करें जो हमारे भले के लिए हों। वह चाहता है कि हम आनन्दित और भरे पूरे रहें। यदि हम आनंद और भरपूरी चाहते हैं, तो हमे इसे परमेश्वर के रीति से पाना चाहिए। यदि हम गलत विचारों से भरे हुए हैं तो हमारा जीवन अत्यन्त दर्दनीय है। यह एक सिद्धान्त नहीं है, परंतु मेरे अनुभव से बोली गई बात है और परमेश्वर के वचन में पाया जाता है। मैंने यह भी सिखा है जब हम दुर्दशा में होते हैं, तो हम दूसरों को भी अपने चारों ओर के दूसरे लोगों को भी दर्दिला बना देते हैं।

क्योंकि उन दिनों में भी मैंने इसे अपने विचारों की सूची बनाने की एक लगातार आदत बना ली थी। इसलिए मैंने अपने सोचने के तरीके का विश्लेषण किया। मैं इस बात के बारे में सोच रही थी। मैंने अपने आप से पूछा, मैं इस बात को इसलिए जोर दे रही हूँ, क्योंकि मैंने अपने खूद के अनुभव से सिखा। शैतान हमें यह सोचने के लिए मौका देकर धोखा देता हैं, कि हमारे दुःख और दुर्दशा का कारण दूसरे लोग या दूसरी परिस्थियां हैं। वह हमें इस सच्चाई का सामना नहीं करने देने का प्रयास करता है, कि हमारे स्वयं के विचार ही हमारे अप्रसन्नता के कारण हैं। मैं यह कहना चाहूँगी, कि नकारात्मक और आलोचनात्मक और निराश विचारों के साथ हम कभी प्रसन्न नहीं रह सकते हैं।

हमें अपने इस विचारों के युद्ध के क्षेत्र में शैतान पर विजय पाने की आवश्यकता है, और परमेश्वर हमारी सहायता करेगा यदि हम उसे करने के लिए कहेंगे।

‘‘हे प्रभु यीशु, मैंने निर्णय लिया है कि, उन बातों के बारे में सोचूं, जिनके बारे में मैं सोचती आ रही हूँ। मैं स्वीकार करती हूँ, कि मेरे विचार ही मेरे नाखुशी, अप्रसन्नता की कारण थे। मेरे द्वारा अनुभव किए जानेवाले नाखुशी का कारण मैं खूद हूँ, न कि कोई और व्यक्ति। मैं यह भी जानती हँू कि मेरे विजय का श्रोत तू ही है, और तेरे ही नाम में मैं माँगती हूँ कि तू मुझे महान विजय दे, क्योंकि मैं अपने विचारों को पवित्र आत्मा की सहायता से जांचती हूँ। आमीन।।''

पवित्र शास्त्र

दिन 35दिन 37

इस योजना के बारें में

मन की युद्धभूमि

जीवन कभी-कभी हम में किसी को भी ध्यान ना देते समय पकड़ सकता है। जब आप के मन में युद्ध चलना आरम्भ होता है, दुश्मन परमेश्वर के साथ आपके संबंध को कमजोर करने के लिए उसके शस्त्रगार से प्रत्येक शस्त्र को इस्तेमाल करेगा। यह भक्तिमय संदेश आपको क्रोध, उलझन, दोष भावना, भय, शंका. .

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हम इस पढ़ने की योजना प्रदान करने के लिए जॉइस मेयर मिनिस्ट्रीज इंडिया को धन्यवाद देना चाहेंगे। अधिक जानकारी के लिए, कृपया देखें: https://tv.joycemeyer.org/hindi/