परमेश्वर का सम्पर्क - पुराने नियम की यात्रा (भाग 2: न्यायियों)Sample
न्यायियों
जैसे ही इस्राएलियों ने दूध और मधु बहने वाले देश की विलासता में कदम जमाए,आलस्य ने उन्हें जकड़ लिया, अनाज्ञाकारिता और वहां के मनोरजंन ने उन्हें चतुराई से अपना गुलाम बना लिया। यद्यपि अगुवों और न्यायियों को उन्हें बदलने के लिए भेजा गया था,लेकिन फिर भी हम निम्म कारणों से उनके पतन को देखते हैंः
·परमेश्वर के वचनों को प्राप्त/ प्रदान करने में असफलता- व्यवस्थाविवरण 6:4-9परमेश्वर ने उन लोगों से स्पष्ट तौर पर कहा कि वे उसकी व्यवस्थाओं को अपने हृदय, माथे और अपने चौखटों इत्यादि पर लिख लें। उत्पत्ति 18:19 में वह (परमेश्वर) अपने वचन की विरासत को आगे बढ़ाने के महत्व को बताता है। लेकिन जब हम न्योयियों 2:10 के लेखे को पढ़ते हैं तो हमें यह विरासत आगे बढ़ते हुए नज़र नहीं आती है, “और उस पीढ़ी के सब लोग भी अपने अपने पितरों में मिल गए,तब उसके बाद जो दूसरी पीढ़ी हुई उसके लोग न तो यहोवा को जानते थे और न उस काम को जो उसने इस्राएल के लिये किया था।”
·“ट्रोजन घोड़ों” के साथ वाचा बांधने की मूर्खता- ग्रीक के लोगों ने ट्रॉय के लोगों के साथ ट्रोजन घोड़े के उपहार के साथ संधि करने का दिखावा किया,जिस घोड़े में ग्रीस के सर्वश्रेष्ठ योद्धा छुपे हुए थे। इस को स्वीकार करने का परिणाम ट्रॉय शहर का नाश हुआ। ट्रोजन घोड़े हमारे जीवन में पाये जाने वाले वे छोटे छोटे पाप हैं जिन्हें हम अपने जीवन में करते हैं और ये ही आगे चलकर बड़े बड़े पापों के लिए जगह बनाते हैं। गिबोनियों के साथ वाचा बांधने की यहोशू की गलती का पुनरावृत्त प्रभाव पड़ा क्योंकि स्वर्गदूत द्वारा न्योयियों 2:2-4 में दी गयी चेतावनी “वे तुम्हारे पांजर में कांटे व फंदा बनेगें” के बावजू़द भी अन्य गोत्रों ने उस वाचा का समर्थन किया। हम इस प्रकार के समझॉतों को एशिया माइनर की कलीसियाओं में प्रकाशितवाक्य 2 व 3 में देखते हैं। दुर्भाग्यवश न तो इस्राएलियों और न ही कलीसियाओं ने दी गयी चेतावनियों पर ध्यान दिया जिसका परिणाम उनका विनाश व पतन हुआ। आज समझौतों से भरे इस संसार में- संसार में, कलीसिया में,हमारे जीवन में, हमारे जीवन को कौन सी चीज़ सबसे ज्यादा प्रभावित करती है?
·अगुवों/ न्यायियों की अविश्वासयोग्यता-किसी भी समूह या दल की सफलता के लिए उसका अगुवा बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस्राएल के पतन के साथ साथ हम उसके अगुवों का पतन स्पष्ट तौर पर देख पाते है-मूसा के समय में, परमेश्वर स्वयं उनके अगुवे थे और हर एक पाप या गलती का निवारण व समाधान उन्हीं के द्वारा किया जाता था। यहोशु के समय में,इस्राएलियों के महान छुटकारे को उनके छोटे छोटे पापों ने संकट में डाल दिया। जब परमेश्वर की सलाह नहीं ली जाती,तो परमेश्वर चुपचाप रहते हैं। हम आगे देखते हैं कि,अगुवों का विश्वास निरन्तर गिरता और बिगड़ता चला गयाः
§बाराक में बिना दबोरा के युद्ध करने का साहस नहीं हुआ
§गिदोन ने ऊन की मांग की और एपोद के मामले में वह असफल रहा
§यिप्तह ने परमेश्वर को अपनी बेटी का बलि दिया
§शिमशोन ने सांसारिकता को अपने जीवन में राज्य करने दिया
·परमेश्वर से दूर हो जाना- “न्यायियों का अन्तिम वचन हमें इस्राएलियों की पतित अवस्था को प्रदर्शित करता है। उन दिना में इस्राएलियों का कोई राजा न था,जिसको जो ठीक जान पड़ता था वही वह करता था।” न्यानियों 21:25
अतः परमेश्वर की आज्ञाओं से फिरने का परिणाम सूक्ष्म लेकिन भयानक होता है। आज भी, मीडिया व अन्य समानान्तर चीज़ों को प्रबल प्रभाव धीरे धीरे हमारे जीवनों में प्रवेश करता,और हमारी जानकारी के बगैर ही हम पर कब्ज़ा कर लेता है। क्या हम परिणामों की चिन्ता किये हुए परमेश्वर के वचनों को थामें हुए मसीह की विरासत को आगे बड़ा सकते हैं? इतिहास इस बात का गवाह है कि समृद्धि के क्षणों में जवाबदेही में कमी आती है और दर्द से भरे क्षणों से हमें आत्मिक उन्नति व लाभ होता है।
Scripture
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इस्राएलियों को परमेश्वर द्वारा सीधे अगुवाई पाने का अनोखा सौभाग्य प्राप्त था जिसने बाद में मूसा द्वारा कार्यप्रणाली को तैयार किया। परमेश्वर ने अगुवाई करने के लिए न्यायियों को खड़ा किया। उन्हें केवल परमेश्वर की आज्ञाओं का़ पालन करने तथा उसकी आराधना करने की ज़रूरत थी।
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