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सभा-उपदेशक 2

2
आरंभिक जांच-पड़ताल
1मैंने अपने हृदय में कहा, “चल, अब मैं भोग-विलास को जांचूंगा, इसलिए मौज कर।” पर मुझे अनुभव हुआ कि भोग-विलास भी निस्‍सार है। 2मुझे हंसी-खुशी के विषय में कहना पड़ा, “यह पागलपन है,” और भोग-विलास के विषय में “यह किस काम का है?” #नीति 14:13
3मैंने मन लगाकर खोज-बीन की कि मदिरा से किस प्रकार अपने शरीर को सुखी करूं (मेरा मन अब तक बुद्धि के मार्ग पर मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहा है), और मूढ़ता को मैं कैसे वश में करूं। मैंने यह भेद प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न किया कि मनुष्‍यों की भलाई किस प्रकार का काम करने मैं है, ताकि वे जीवन के अल्‍पकाल में इस पृथ्‍वी पर उस काम को कर सकें।
4मैंने बड़े-बड़े काम किए। मैंने अपने लिए महल बनाए और अंगूर-उद्यान लगाए।#1 रा 10:23-27 5मैंने अपने लिए बगीचे-उद्यान लगाए और इन उद्यानों में हर प्रकार के फलों के वृक्ष लगाए। 6मैंने जलाशय बनाए, जहाँ के जल से जंगल के वृक्षों को सींचा जाता था। 7मैंने स्‍त्री-पुरुष गुलाम खरीदे। मेरे पास वे गुलाम भी थे, जिनका जन्‍म मेरे ही महल में हुआ था। मेरे पास गाय-बैलों के इतने रेवड़ और भेड़-बकरियों के इतने झुण्‍ड थे जितने यरूशलेम में किसी राजा के पास नहीं थे।#1 रा 4:23 8इनके अतिरिक्‍त मैंने राजाओं और प्रदेशों का सोना, चांदी और धन भी अपने पास इकट्ठा कर रखा था। मेरे दरबार में अनेक गायिकाएँ और गायक थे। मेरे पास पुरुष का दिल बहलानेवाली अनेक रखेल स्‍त्रियाँ भी थीं।#1 रा 9:28; 10:10
9इस प्रकार मैं यरूशलेम के भूतपूर्व राजाओं से अधिक महान और सम्‍पत्तिशाली हो गया। तो भी मेरी बुद्धि ने मेरा साथ नहीं छोड़ा।#1 इत 29:25 10जिन वस्‍तुओं को देखने की मुझे इच्‍छा हुई, मैंने उन्‍हें भरपूर नजर से देखा। मैं किसी भी प्रकार के आमोद-प्रमोद से अपना हृदय वंचित नहीं रखता था, क्‍योंकि मेरा हृदय मेरे परिश्रम के सब कामों में आनन्‍द लेता था और यही आनन्‍द मेरे सब परिश्रमों का पुरस्‍कार था।
11तब मैंने अपने कामों पर विचार किया, मैंने उस परिश्रम पर भी सोचा जो मैंने उन कामों पर किया था। मुझे अनुभव हुआ कि यह सब निस्‍सार है− यह मानो हवा को पकड़ना है। इस सूर्य के नीचे धरती पर मनुष्‍य के काम और परिश्रम से कुछ लाभ नहीं।
12अब मैं बुद्धि, पागलपन और मूर्खता पर विचार करने लगा, क्‍योंकि उत्तराधिकारी जो राजा के पीछे आएगा, वह क्‍या कर सकता है? वही न, जो राजा कर चुका है?
13मैंने देखा कि जैसे अन्‍धकार से प्रकाश श्रेष्‍ठ है वैसे ही बुद्धि मूर्खता से श्रेष्‍ठ है। 14बुद्धिमान व्यक्‍ति के सिर में उसकी आंखें होती हैं, और वह देखकर चलता है, किन्‍तु मूर्ख मनुष्‍य अन्‍धकार में टटोलता है। तो भी मुझे यह अनुभव हुआ कि मूर्ख और बुद्धिमान दोनों एक ही गति को प्राप्‍त होते हैं।#यो 8:12; 1 यो 2:10-11 15मैंने अपने हृदय में कहा, “जो दशा मूर्ख की होती है, वही मेरी भी होगी। फिर मैं इतना बुद्धिमान क्‍यों हुआ?” अत: मैंने अपने हृदय में कहा, “मूर्ख होना, अथवा बुद्धिमान होना भी व्‍यर्थ है।” 16क्‍योंकि जैसे मूर्ख की स्‍मृति स्‍थायी नहीं होती वैसे ही बुद्धिमान की भी स्‍मृति स्‍थायी नहीं होती। कुछ ही दिनों में लोग सब भूल जाते हैं। जैसे मूर्ख मरता है वैसे ही बुद्धिमान भी।
17मुझे जीवन से घृणा हो गई, क्‍योंकि आकाश के नीचे पृथ्‍वी पर किए जाने वाले सब कार्य मुझे बुरे लगने लगे। यह सब व्‍यर्थ है, यह मानो हवा को पकड़ना है।
18मैंने देखा कि मुझे अपने परिश्रम का फल उस उत्तराधिकारी के लिए छोड़ जाना होगा जो मेरे पीछे आनेवाला है। अत: मुझे अपने सम्‍पूर्ण परिश्रम से घृणा हो गई जो मैंने सूर्य के नीचे इस धरती पर किया था। 19कौन जानता है कि मेरा उत्तराधिकारी बुद्धिमान होगा अथवा मूर्ख? तो भी धरती पर वह मेरे समस्‍त परिश्रम के फल को भोगेगा और जो कुछ मैंने बुद्धि से संग्रह किया है वह उसका स्‍वामी होगा। 20अत: यह भी व्‍यर्थ है। इसलिए मैं सूर्य के नीचे धरती पर किए गए अपने सम्‍पूर्ण परिश्रम के प्रति निराश हो गया। उससे विमुख हो गया। 21कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्‍य बुद्धि, ज्ञान और कौशल से परिश्रम करता है किन्‍तु वह उसका फल उस व्यक्‍ति के द्वारा भोगने के लिए छोड़ जाता है, जिसने उसके लिए कुछ भी परिश्रम नहीं किया। यह भी व्‍यर्थ है और बहुत बुरा है। 22सूर्य के नीचे पृथ्‍वी पर मन लगा कर किए गए परिश्रम से मनुष्‍य को क्‍या लाभ? 23सच पूछो तो उसके जीवन के सब दिन दु:खों से भरे रहते हैं, और उसका काम सन्‍तोष नहीं, वरन् सन्‍ताप उत्‍पन्न करता है। रात में भी उसके मन को चैन नहीं मिलता। यह भी व्‍यर्थ है।#अय्‍य 5:7; 14:1
24मनुष्‍य के लिए इससे अधिक अच्‍छी बात और कोई नहीं कि वह खाए-पीए और आनन्‍द के साथ परिश्रम करे। किन्‍तु मैंने देखा है कि यह भी परमेश्‍वर के हाथ से प्राप्‍त होता है।#यश 56:12; लू 12:19; 1 कुर 15:32 25क्‍योंकि परमेश्‍वर से दूर रहकर कौन व्यक्‍ति खा-पी सकता है, और आनन्‍द मना सकता है? 26जिस मनुष्‍य से परमेश्‍वर प्रसन्न होता है वह उसी को बुद्धि, ज्ञान और आनन्‍द प्रदान करता है। पापी मनुष्‍य से परमेश्‍वर कठोर परिश्रम कराता है। पापी मनुष्‍य परमेश्‍वर के प्रिय व्यक्‍ति के लिए धन एकत्र करता और उसको संचित करता है। अत: यह भी व्‍यर्थ है, यह मानो हवा को पकड़ना है।#अय्‍य 32:8; नीति 2:6

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