सभा-उपदेशक 1
1
सब व्यर्थ है
1यरूशलेम के राजा, दाऊद के पुत्र सभा-
उपदेशक के प्रवचन।
2सभा-उपदेशक यह कहता है:
सब व्यर्थ है, सब निस्सार है।
निस्सन्देह सब व्यर्थ है, सब निस्सार है;
सब कुछ व्यर्थ है!#भज 62:10; रोम 8:20
3जो मेहनत मनुष्य इस धरती पर करता है,
उसे उससे क्या प्राप्त होता है?
4एक पीढ़ी गुजरती है,
और दूसरी पीढ़ी आती है,
पर पृथ्वी ज्यों की त्यों सदा बनी रहती है।#प्रव 14:18
5सूर्य उगता है, वह अस्त होता है,
और वह शीघ्रता से उस स्थान को लौट जाता
है जहाँ से वह उदय होता है।
6पवन दक्षिण दिशा की ओर बहता है,
और घूम कर उत्तर में आ जाता है,
और यों वह निरन्तर
अपनी परिधि में चक्कर लगाता है,
पवन अपनी परिधि की परिक्रमा करता है।
7सब सरिताएँ सागर में मिलती हैं,
पर सागर भरता नहीं।
नदियाँ अपने उद्गम-स्थल से
फिरकर फिर बहती हैं।
8सब बातें थकानेवाली हैं,
मनुष्य उनका वर्णन नहीं कर सकता।
आंखें देखकर भी तृप्त नहीं होतीं,
और न कान सुनकर ही संतुष्ट होते हैं।
9जो बात हो चुकी है वह फिर होगी;
जो बन चुकी है वह फिर बनेगी;
इस सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं है।
10क्या पृथ्वी पर ऐसा कुछ है,
जिसके विषय में यह कहा जा सके,
“देखो, यह नयी बात है?”
पर वह हमसे बहुत पहले
प्राचीनकाल में हो चुकी है।
11प्राचीनकाल की बातों की स्मृति
वर्तमान काल में शेष नहीं रहती,
और न हमारे पश्चात्
आनेवाले लोगों को
भविष्य की बातें याद रहेंगी।
सभा-उपदेशक का अनुभव
12मैं− सभा-उपदेशक, इस्राएल देश का राजा था और यरूशलेम नगर में राज्य करता था। 13इस आकाश के नीचे पृथ्वी पर जो होता है, बुद्धि से उसकी खोजबीन करने और उसका भेद समझने के लिए मैंने अपना मन लगाया। यह एक कष्टप्रद कार्य है, जिसे परमेश्वर ने मनुष्यों को इसी कार्य में व्यस्त रहने के लिए सौंपा है। 14जो कुछ सूर्य के नीचे धरती पर होता है, वह सब मैंने देखा है। मुझे अनुभव हुआ कि यह सब निस्सार है− यह मानो हवा को पकड़ना है।
15जो कुटिल है, वह सीधा नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, वह गिना नहीं जा सकता।
16मैंने अपने हृदय से कहा, ‘देख, तूने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है, इतना कि तेरा ज्ञान उन सब राजाओं से बढ़ गया, जो तुझसे पहले यरूशलेम में हुए थे। तुझे बहुत बुद्धि और ज्ञान का अनुभव हो चुका है।” #1 रा 3:12; 4:29; प्रव 47:14-18 17अत: मैंने अपना मन यह जानने में लगाया कि बुद्धि क्या है, पागलपन और मूर्खता क्या है। तब मुझे ज्ञात हुआ कि यह भी हवा को पकड़ना है। क्योंकि−
18अधिक बुद्धि अधिक कष्ट की जननी है। ज्ञान बढ़ानेवाला अपने दु:ख को भी बढ़ाता है।
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सभा-उपदेशक 1: HINCLBSI
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