भजन संहिता 74

74
ध्‍वस्‍त मंदिर पर विलाप
आसाफ का मसकील।
1हे परमेश्‍वर, क्‍यों तूने हमें सदा के लिए
त्‍याग दिया?
क्‍यों तेरी क्रोधाग्‍नि
तेरे चारागाह की भेड़ों के प्रति भड़क उठी?
2स्‍मरण कर अपनी मण्‍डली को,
जिसे तूने प्राचीन काल में मोल लिया था,
जिसे अपनी मीरास का कुल बनाने के लिए
मुक्‍त किया है
स्‍मरण कर सियोन पर्वत को
जहाँ तू निवास करता है।#यश 63:17
3शत्रु ने पवित्र स्‍थान को पूर्णत: नष्‍ट कर दिया है।
उस लगातार होने वाले विनाश की ओर
अपने पैर बढ़ा।
4तेरे बैरी तेरे मन्‍दिर में गरज रहे हैं,
उन्‍होंने अपने ही झण्‍डे
ध्‍वज-चिह्‍न के लिए गाड़े हैं।
5उन्‍होंने उपरले प्रवेश-द्वार पर कुल्‍हाड़ी से
लकड़ी की जालियों को तोड़-फोड़ डाला;
6तत्‍पश्‍चात् उसके समस्‍त नक्‍काशीदार काठ को
उन्‍होंने कुल्‍हाड़ों और हथौड़ों से काट-कूट
डाला।
7उन्‍होंने पवित्र स्‍थान में आग लगा दी,
तेरे नाम के निवास-स्‍थान को
भूमिसात कर अशुद्ध कर दिया।
8उन्‍होंने अपने हृदय में यह कहा,
“हम इन्‍हें पूर्णत: पराजित करेंगे।”
उन्‍होंने देश में परमेश्‍वर के समस्‍त
आराधना-गृहों को जला डाला।
9हमारे झण्‍डे हमें नहीं दिखाई देते;
अब कोई नबी नहीं रहा;
हमारे मध्‍य कोई नहीं जानता
कि हमारी यह दशा कब तक रहेगी।#मी 3:6
10हे परमेश्‍वर, कब तक बैरी
हमारी निन्‍दा करता रहेगा?
क्‍या शत्रु तेरे नाम का तिरस्‍कार
निरन्‍तर करेगा?
11तूने अपना हाथ, दाहिना हाथ
क्‍यों खींच लिया है?
तूने उसे वक्ष में क्‍यों छिपा लिया है?
12परमेश्‍वर, तू आदि काल से हमारा राजा है,
तू पृथ्‍वी के मध्‍य उद्धार-कार्य करने वाला
ईश्‍वर है।
13तूने अपनी शक्‍ति से सागर को विभाजित
किया था,
तूने जल में मगरमच्‍छों के सिरों को टुकड़े-
टुकड़े किया था,#नि 14:21; यश 51:9
14तूने लिव्‍यातान जल-पशु के सिरों को
कुचला था,
और उसको वन प्राणियों का आहार बनने के
लिए दे दिया था।#अय्‍य 41:1; भज 104:26; यश 27:1
15तूने चट्टान फोड़ कर झरने और स्रोत बहाए थे,
तूने सदा बहनेवाली जलधाराओं को भी
सुखाया था।
16तेरा ही दिन है, और रात भी तेरी है।
तूने सूर्य और चन्‍द्रमा को स्‍थित किया है।
17तूने पृथ्‍वी के सीमान्‍तों को ठहराया है,
तूने ग्रीष्‍म और शीत ऋतुएं बनाई हैं।
18हे प्रभु, स्‍मरण कर
कि शत्रु तेरी कैसी निन्‍दा करता है,
मूर्ख तेरे नाम का तिरस्‍कार करते हैं।
19प्रभु, अपने कपोत का प्राण
जंगली पशुओं के पंजे में मत सौंप;
अपने पीड़ित लोगों के जीवन को
सदा के लिए न भुला।
20अपने विधान की सुधि ले;
क्‍योंकि देश के अन्‍धेरे स्‍थान
अत्‍याचार के घर बन गए हैं।
21दमित व्यक्‍ति को लज्‍जित न होना पड़े;
पीड़ित और दरिद्र तेरे नाम का यशोगान करें।
22हे परमेश्‍वर, उठ और अपना पक्ष प्रस्‍तुत कर।
मूर्ख द्वारा निरन्‍तर की जाने वाली निन्‍दा को
स्‍मरण कर।
23अपने बैरियों की चिल्‍लाहट को,
अपने विरोधियों के कोलाहल को मत भूल;
कोलाहल निरन्‍तर उठता जा रहा है।

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