नीतिवचन 27
27
1आनेवाले कल के सम्बन्ध में
शेखी मत मारना;
क्योंकि तू नहीं जानता है कि
कल क्या होगा?#लू 12:19-20; याक 4:13-14
2तू अपनी प्रशंसा अपने मुंह से न करना;
दूसरे लोग तेरी प्रशंसा करें तो करें।
दूसरे मनुष्य के मुख से तेरी प्रशंसा हो,
यह शोभा देता है;
अपने आप मियां-मिट्ठू मत बनना।#2 कुर 1:12
3पत्थर भारी होता है
रेत भी वजनदार होती है,
पर इनसे अधिक भारी होता है
मूर्ख मनुष्य का क्रोध।
4क्रोध निर्दय होता है;
गुस्सा मनुष्य को दबोच देता है;
पर ईष्र्या के सामने कौन ठहर सकता है?
5प्रेम जो सक्रिय नहीं है,
उससे उत्तम है ताड़ना
जो मनुष्य को सुधारती है।
6शत्रु के अपार प्यार से
सच्चे मित्र की मार श्रेष्ठ है।#मत 26:49
7जिसका पेट भरा है,
उसको शहद भी फीका लगता है;
परन्तु जिसका पेट खाली है,
उसको कड़ुवी वस्तु भी मीठी लगती है।
8घर छोड़कर चला जानेवाला आदमी
उस पक्षी की तरह भटकता है,
जो अपने घोंसले से दूर चला गया है।
9तेल और इत्र से हृदय प्रसन्न होता है;
किन्तु संकट से मन घबरा जाता है।#27:9 अथवा, “मित्र के हृदय से निकले उचित परामर्श से मन आनन्दित होता है।”
10अपने मित्र को, और अपने पिता के मित्र
को कभी मत छोड़ना;
अपने संकट के दिन
अपने भाई के घर में पैर मत रखना।
दूर रहनेवाले भाई से
पास रहनेवाला पड़ोसी उत्तम है।
11मेरे पुत्र, बुद्धिमान बन,
जिससे मेरा हृदय आनन्दित हो,
और मैं उस मनुष्य का मुंह बन्द कर सकूं
जो तेरे कारण मेरी निन्दा करता है।
12चतुर मनुष्य खतरे को देखकर स्वयं को
छिपा लेता है;
पर भोला मनुष्य खतरे के मुंह में चला जाता है,
और कष्ट भोगता है।
13यदि किसी मनुष्य ने अजनबी आदमी की
जमानत दी है,
तो उससे उसका वस्त्र गिरवी रख लेना;
और यदि वह विदेशी की जमानत देता है,
तो उससे बन्धक की वस्तु लेना।
14यदि कोई मनुष्य सबेरे उठकर ऊंची आवाज
में अपने पड़ोसी को आशीर्वाद देता है,
तो यह वास्तव में शाप बन जाएगा।
15वर्षा ऋतु में पानी का लगातार बरसना,
और झगड़ालू पत्नी,
दोनों कष्टदायक हैं।
16जो पति झगड़ालू पत्नी को रोक सकता है,
तो वह हवा को रोक सकता है,
वह दाहिने हाथ से तेल को पकड़ सकता है।
17लोहे पर धार लोहे से ही होती है;
ऐसे ही मनुष्य, मनुष्य को सुधारता है।
18जो मनुष्य अंजीर के वृक्ष की
देखभाल करता है,
उसे उसके फल खाने को मिलते हैं।
ऐसे ही जो सेवक अपने मालिक की सेवा
करता है,
मालिक उसका सम्मान करता है।
19जैसे जल में मुख की परछाई
मुख को प्रकट करती है,
वैसे ही मनुष्य का मन
मनुष्य को प्रकट करता है।
20जैसे अधोलोक और पाताल
मनुष्यों के शवों से कभी तृप्त नहीं होते,
वैसे ही मनुष्य की इच्छाएँ कभी तृप्त
नहीं होतीं।
21जैसे चांदी की परख कुठाली पर,
और सोने की परख भट्ठी में होती है,
वैसे ही मनुष्य की परख
लोगों के द्वारा की गई
प्रशंसा से होती है।
22चाहे तू मूर्ख को अनाज की तरह
ओखली में डालकर मूसल से
क्यों न कूटे, उसकी मूर्खता नहीं जाने की!
23अपने पशुधन की दशा से
भली-भांति परिचित रहो;
अपने रेवड़ कि देखभाल करो;
24क्योंकि नकदी रुपया-पैसा सदा
टिकता नहीं,
और न मनुष्य का गौरव
पीढ़ी से पीढ़ी तक बना रहता है।
25जब कटी हुई घास उठा ली जाती है,
और नई घास उगती है,
जब पहाड़ों की वनस्पति एकत्र की जाती है,
26तब मेमनों के ऊन से
तेरे लिए वस्त्रों की व्यवस्था होती है
और बकरों की कीमत से
तू खेत मोल लेता है।
27बकरियों को इतना दूध होता है
कि उससे तेरे और तेरे परिवार का
पेट भरता है;
उससे तेरी दासियों का भी जीवन निर्वाह
होता है।
वर्तमान में चयनित:
नीतिवचन 27: HINCLBSI
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