प्रभु का सेवक एक नन्हा पौधा-जैसा उसके सम्मुख उगा; वह जड़ के सदृश शुष्क भूमि से फूटा। उसमें न रूप था, और न आकर्षण कि हम उसे देखते; उसमें सुन्दरता भी न थी, कि हम उसकी कामना करते। लोगों ने उससे घृणा की; उन्होंने उसको त्याग दिया। वह दु:खी मनुष्य था, केवल पीड़ा से उसकी पहचान थी। उसको देखते ही लोग अपना मुख फेर लेते थे। हम ने उससे घृणा की और उसका मूल्य नहीं जाना। निस्सन्देह उसने हमारी पीड़ा को सहा, और हमारे दु:खों को भोगा। फिर भी हमने समझा कि परमेश्वर ने उसे घायल किया है, उसे दु:खी और पीड़ित किया है।
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