रोमियों 9:16-33
रोमियों 9:16-33 पवित्र बाइबल (HERV)
इसलिए न तो यह किसी की इच्छा पर निर्भर करता है और न किसी की दौड़ धूप पर बल्कि दयालु परमेश्वर पर निर्भर करता है। क्योंकि शास्त्र में परमेश्वर ने फिरौन से कहा था, “मैंने तुझे इसलिए खड़ा किया था कि मैं अपनी शक्ति तुझ में दिखा सकूँ। और मेरा नाम समूची धरती पर घोषित किया जाये।” सो परमेश्वर जिस पर चाहता है दया करता है और जिसे चाहता है कठोर बना देता है। तो फिर तू शायद मुझ से कहे, “यदि हमारे कर्मों का नियन्त्रण करने वाला परमेश्वर है तो फिर भी वह उसमें हमारा दोष क्यों समझता है?” आखिरकार उसकी इच्छा का विरोध कौन कर सकता है? मनुष्य तू कौन होता है जो परमेश्वर को उलट कर उत्तर दे? क्या कोई रचना अपने रचने वाले से पूछ सकती है, “तूने मुझे ऐसा क्यों बनाया?” क्या किसी कुम्हार की मिट्टी पर यह अधिकार नहीं है कि वह किसी एक लौंदे से एक बरतनों विशेष प्रयोजन के लिए और दूसरा हीन प्रयोजन के लिए बनाये? किन्तु इसमें क्या है यदि परमेश्वर ने अपना क्रोध दिखाने और अपनी शक्ति जताने के लिए उन लोगों की, जो क्रोध के पात्र थे और जिनका विनाश होने को था, बड़े धीरज के साथ सही, उसने उनकी सही ताकि वह उन लोगों के लाभ के लिए जो दया के पात्र थे और जिन्हें उसने अपनी महिमा पाने के लिए बनाया था, उन पर अपनी महिमा प्रकट कर सके। अर्थात हम जिन्हें उसने न केवल यहूदियों में से बुलाया बल्कि ग़ैर यहूदियों में से भी जैसा कि होशे की पुस्तक में लिखा है: “जो लोग मेरे नहीं थे उन्हें मैं अपना कहूँगा। और वह स्त्री जो प्रिय नहीं थी मैं उसे प्रिया कहूँगा।” और, “वैसा ही घटेगा जैसा उसी भाग में उनसे कहा गया था, ‘तुम लोग मेरी प्रजा नहीं हो।’ वहीं वे जीवित परमेश्वर की सन्तान कहलाएँगे।” और यशायाह इस्राएल के बारे में पुकार कर कहता है: “यद्यपि इस्राएल की सन्तान समुद्र की बालू के कणों के समान असंख्य हैं। तो भी उनमें से केवल थोड़े से ही बच पायेंगे। क्योंकि प्रभु पृथ्वी पर अपने न्याय को पूरी तरह से और जल्दी ही पूरा करेगा।” और जैसा कि यशायाह ने भविष्यवाणी की थी: “यदि सर्वशक्तिमान प्रभु हमारे लिए, वंशज न छोड़ता तो हम सदोम जैसे और अमोरा जैसे ही हो जाते।” तो फिर हम क्या कहें? हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अन्य जातियों के लोग जो धार्मिकता की खोज में नहीं थे, उन्होंने धार्मिकता को पा लिया है। वे जो विश्वास के कारण ही धार्मिक ठहराए गए। किन्तु इस्राएल के लोगों ने जो ऐसी व्यवस्था पर चलना चाहते थे जो उन्हें धार्मिक ठहराती, उसके अनुसार नहीं जी सके। क्यों नहीं? क्योंकि वे इसका पालन विश्वास से नहीं, बल्कि अपने कर्मों से कर रहे थे, वे उस चट्टान पर ठोकर खा गये, जो ठोकर दिलाती है। जैसा कि शास्त्र कहता है
रोमियों 9:16-33 पवित्र बाइबिल CL Bible (BSI) (HINCLBSI)
इसलिए यह मनुष्य की इच्छा या उसके परिश्रम पर नहीं, बल्कि दया करने वाले परमेश्वर पर निर्भर रहता है। धर्मग्रन्थ मिस्र देश के राजा फरओ से कहता है, “मैंने तुझे इसलिए ऊपर उठाया है कि तुझ में अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करूँ और सारी पृथ्वी पर अपने नाम का प्रचार करूँ।” इसलिए परमेश्वर जिस पर चाहे, दया करता है और जिसे चाहे, हठधर्मी बना देता है। तुम मुझ से कहोगे, “तो, परमेश्वर मनुष्य को क्यों दोष देता है? परमेश्वर की इच्छा का विरोध कौन कर सकता है?” अरे भई! तुम कौन हो, जो परमेश्वर से विवाद करते हो? क्या गढ़ी हुई प्रतिमा अपने गढ़ने वाले से कहती है, “तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया?” क्या कुम्हार को यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही लोंदे से एक पात्र विशिष्ट प्रयोजन के लिए बनाये और दूसरा पात्र साधारण प्रयोजन के लिए? यदि परमेश्वर ने अपना क्रोध प्रदर्शित करने तथा अपना सामर्थ्य प्रकट करने के उद्देश्य से बहुत धैर्य से कोप के उन पात्रों को सहन किया, जो विनाश के लिए तैयार थे, तो कौन आपत्ति कर सकता है? उसने ऐसा इसलिए किया कि वह दया के उन पात्रों पर अपनी महिमा का वैभव प्रकट करना चाहता था, जिन्हें उसने पहले से ही उस महिमा के लिए तैयार किया था। ऐसे दया के पात्र हम हैं, जिन्हें उसने न केवल यहूदियों में से बुलाया है, बल्कि गैर-यहूदियों में से भी। जैसा कि वह नबी होशे के ग्रन्थ में कहता है, “जो लोग मेरी प्रजा नहीं थे, मैं उन्हें अपनी प्रजा कहूँगा और जो मुझे प्रिय नहीं थे, मैं उन्हें प्रिय कहूँगा। और जिस स्थान पर उसने उन से यह कहा था, ‘तुम मेरी प्रजा नहीं हो’ वहीं वे जीवन्त परमेश्वर की संतान कहलायेंगे।” नबी यशायाह इस्राएल के विषय में पुकार कर कहते हैं, “इस्राएलियों की संख्या समुद्र के बालू-कणों के सदृश क्यों न हो, फिर भी उन में अवशेष मात्र मुक्ति पायेगा, क्योंकि प्रभु पूर्ण रूप से एवं शीघ्र ही पृथ्वी पर अपना वचन पूरा करेगा।” नबी यशायाह ने पहले भी कहा था, “यदि स्वर्गिक सेनाओं के प्रभु ने हमारे लिए कुछ वंशज शेष नहीं छोड़े होते, तो हम सदोम और गमोरा नगरों के सदृश पूर्णत: नष्ट हो गये होते।” हम क्या कहें? इसका निष्कर्ष यह है कि गैर-यहूदियों ने, जो धार्मिकता की खोज में नहीं लगे हुए थे, धार्मिकता, अर्थात् विश्वास पर आधारित धार्मिकता प्राप्त की। परन्तु इस्राएल, जो धार्मिकता की व्यवस्था के प्रति उत्साह दिखलाता था, व्यवस्था की परिपूर्णता तक नहीं पहुँच सका। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि इस्राएली विश्वास पर नहीं, बल्कि कर्मकाण्ड पर निर्भर रहते थे। उनके पैर “ठोकर के पत्थर” से लग गये और वे गिर पड़े। जैसे कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, “देखो, मैं सियोन में ठोकर का पत्थर, लोगों को गिराने वाली शिला रख रहा हूँ। परन्तु जो उस पर विश्वास करता है, उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा।”
रोमियों 9:16-33 Hindi Holy Bible (HHBD)
सो यह न तो चाहने वाले की, न दौड़ने वाले की परन्तु दया करने वाले परमेश्वर की बात है। क्योंकि पवित्र शास्त्र में फिरौन से कहा गया, कि मैं ने तुझे इसी लिये खड़ा किया है, कि तुझ में अपनी सामर्थ दिखाऊं, और मेरे नाम का प्रचार सारी पृथ्वी पर हो। सो वह जिस पर चाहता है, उस पर दया करता है; और जिसे चाहता है, उसे कठोर कर देता है। सो तू मुझ से कहेगा, वह फिर क्यों दोष लगाता है? कौन उस की इच्छा का साम्हना करता है? हे मनुष्य, भला तू कौन है, जो परमेश्वर का साम्हना करता है? क्या गढ़ी हुई वस्तु गढ़ने वाले से कह सकती है कि तू ने मुझे ऐसा क्यों बनाया है? क्या कुम्हार को मिट्टी पर अधिकार नहीं, कि एक ही लौंदे मे से, एक बरतन आदर के लिये, और दूसरे को अनादर के लिये बनाए? तो इस में कौन सी अचम्भे की बात है? कि परमेश्वर ने अपना क्रोध दिखाने और अपनी सामर्थ प्रगट करने की इच्छा से क्रोध के बरतनों की, जो विनाश के लिये तैयार किए गए थे बड़े धीरज से सही। और दया के बरतनों पर जिन्हें उस ने महिमा के लिये पहिले से तैयार किया, अपने महिमा के धन को प्रगट करने की इच्छा की अर्थात हम पर जिन्हें उस ने न केवल यहूदियों में से वरन अन्यजातियों में से भी बुलाया। जैसा वह होशे की पुस्तक में भी कहता है, कि जो मेरी प्रजा न थी, उन्हें मैं अपनी प्रजा कहूंगा, और जो प्रिया न थी, उसे प्रिया कहूंगा। और ऐसा होगा कि जिस जगह में उन से यह कहा गया था, कि तुम मेरी प्रजा नहीं हो, उसी जगह वे जीवते परमेश्वर की सन्तान कहलाएंगे। और यशायाह इस्त्राएल के विषय में पुकारकर कहता है, कि चाहे इस्त्राएल की सन्तानों की गिनती समुद्र के बालू के बारबर हो, तौभी उन में से थोड़े ही बचेंगे। क्योंकि प्रभु अपना वचन पृथ्वी पर पूरा करके, धामिर्कता से शीघ्र उसे सिद्ध करेगा। जैसा यशायाह ने पहिले भी कहा था, कि यदि सेनाओं का प्रभु हमारे लिये कुछ वंश न छोड़ता, तो हम सदोम की नाईं हो जाते, और अमोरा के सरीखे ठहरते॥ सो हम क्या कहें? यह कि अन्यजातियों ने जो धामिर्कता की खोज नहीं करते थे, धामिर्कता प्राप्त की अर्थात उस धामिर्कता को जो विश्वास से है। परन्तु इस्त्राएली; जो धर्म की व्यवस्था की खोज करते हुए उस व्यवस्था तक नहीं पहुंचे। किस लिये? इसलिये कि वे विश्वास से नहीं, परन्तु मानो कर्मों से उस की खोज करते थे: उन्होंने उस ठोकर के पत्थर पर ठोकर खाई। जैसा लिखा है; देखो मैं सियोन में एक ठेस लगने का पत्थर, और ठोकर खाने की चट्टान रखता हूं; और जो उस पर विश्वास करेगा, वह लज्ज़ित न होगा॥
रोमियों 9:16-33 पवित्र बाइबिल OV (Re-edited) Bible (BSI) (HINOVBSI)
अत: यह न तो चाहनेवाले की, न दौड़नेवाले की परन्तु दया करनेवाले परमेश्वर की बात है। क्योंकि पवित्रशास्त्र में फ़िरौन से कहा गया, “मैं ने तुझे इसी लिये खड़ा किया है कि तुझ में अपनी सामर्थ्य दिखाऊँ, और मेरे नाम का प्रचार सारी पृथ्वी पर हो।” इसलिये वह जिस पर चाहता है उस पर दया करता है, और जिसे चाहता है उसे कठोर कर देता है। अत: तू मुझ से कहेगा, “वह फिर क्यों दोष लगाता है? कौन उसकी इच्छा का सामना करता है?” हे मनुष्य, भला तू कौन है जो परमेश्वर का सामना करता है? क्या गढ़ी हुई वस्तु गढ़नेवाले से कह सकती है, “तू ने मुझे ऐसा क्यों बनाया है?” क्या कुम्हार को मिट्टी पर अधिकार नहीं कि एक ही लोंदे में से एक बरतन आदर के लिये, और दूसरे को अनादर के लिये बनाए? तो इसमें कौन सी आश्चर्य की बात है कि परमेश्वर ने अपना क्रोध दिखाने और अपनी सामर्थ्य प्रगट करने की इच्छा से क्रोध के बरतनों की, जो विनाश के लिये तैयार किए गए थे, बड़े धीरज से सही; और दया के बरतनों पर, जिन्हें उसने महिमा के लिये पहले से तैयार किया, अपने महिमा के धन को प्रगट करने की इच्छा की? अर्थात् हम पर जिन्हें उसने न केवल यहूदियों में से, वरन् अन्यजातियों में से भी बुलाया। जैसा वह होशे की पुस्तक में भी कहता है, “जो मेरी प्रजा न थी, उन्हें मैं अपनी प्रजा कहूँगा; और जो प्रिया न थी, उसे प्रिया कहूँगा। और ऐसा होगा कि जिस जगह में उनसे यह कहा गया था कि तुम मेरी प्रजा नहीं हो, उसी जगह वे जीवते परमेश्वर की सन्तान कहलाएँगे।” और यशायाह इस्राएल के विषय में पुकारकर कहता है, “चाहे इस्राएल की सन्तानों की गिनती समुद्र के बालू के बराबर हो, तौभी उनमें से थोड़े ही बचेंगे। क्योंकि प्रभु अपना वचन पृथ्वी पर पूरा करके, धार्मिकता से शीघ्र उसे सिद्ध करेगा।” जैसा यशायाह ने पहले भी कहा था, “यदि सेनाओं का प्रभु हमारे लिये कुछ वंश न छोड़ता, तो हम सदोम के समान हो जाते, और अमोरा के सदृश ठहरते।” अत: हम क्या कहें? यह कि अन्यजातियों ने जो धार्मिकता की खोज नहीं करते थे, धार्मिकता प्राप्त की अर्थात् उस धार्मिकता को जो विश्वास से है; परन्तु इस्राएली, जो धर्म की व्यवस्था की खोज करते थे उस व्यवस्था तक नहीं पहुँचे। किस लिये? इसलिये कि वे विश्वास से नहीं, परन्तु मानो कर्मों से उसकी खोज करते थे। उन्होंने उस ठोकर के पत्थर पर ठोकर खाई, जैसा लिखा है, “देखो, मैं सिय्योन में एक ठेस लगने का पत्थर, और ठोकर खाने की चट्टान रखता हूँ, और जो उस पर विश्वास करेगा वह लज्जित न होगा।”
रोमियों 9:16-33 इंडियन रिवाइज्ड वर्जन (IRV) हिंदी - 2019 (IRVHIN)
इसलिए यह न तो चाहनेवाले की, न दौड़नेवाले की परन्तु दया करनेवाले परमेश्वर की बात है। क्योंकि पवित्रशास्त्र में फ़िरौन से कहा गया, “मैंने तुझे इसलिए खड़ा किया है, कि तुझ में अपनी सामर्थ्य दिखाऊँ, और मेरे नाम का प्रचार सारी पृथ्वी पर हो।” (निर्ग. 9:16) तो फिर, वह जिस पर चाहता है, उस पर दया करता है; और जिसे चाहता है, उसे कठोर कर देता है। फिर तू मुझसे कहेगा, “वह फिर क्यों दोष लगाता है? कौन उसकी इच्छा का सामना करता है?” हे मनुष्य, भला तू कौन है, जो परमेश्वर का सामना करता है? क्या गढ़ी हुई वस्तु गढ़नेवाले से कह सकती है, “तूने मुझे ऐसा क्यों बनाया है?” क्या कुम्हार को मिट्टी पर अधिकार नहीं, कि एक ही लोंदे में से, एक बर्तन आदर के लिये, और दूसरे को अनादर के लिये बनाए? (यशा. 64:8) कि परमेश्वर ने अपना क्रोध दिखाने और अपनी सामर्थ्य प्रगट करने की इच्छा से क्रोध के बरतनों की, जो विनाश के लिये तैयार किए गए थे बड़े धीरज से सही। (नीति. 16:4) और दया के बरतनों पर जिन्हें उसने महिमा के लिये पहले से तैयार किया, अपने महिमा के धन को प्रगट करने की इच्छा की? अर्थात् हम पर जिन्हें उसने न केवल यहूदियों में से वरन् अन्यजातियों में से भी बुलाया। (इफि. 3:6, रोम. 3:29) जैसा वह होशे की पुस्तक में भी कहता है, “जो मेरी प्रजा न थी, उन्हें मैं अपनी प्रजा कहूँगा, और जो प्रिया न थी, उसे प्रिया कहूँगा; (होशे 2:23) और ऐसा होगा कि जिस जगह में उनसे यह कहा गया था, कि तुम मेरी प्रजा नहीं हो, उसी जगह वे जीविते परमेश्वर की सन्तान कहलाएँगे।” और यशायाह इस्राएल के विषय में पुकारकर कहता है, “चाहे इस्राएल की सन्तानों की गिनती समुद्र के रेत के बराबर हो, तो भी उनमें से थोड़े ही बचेंगे। (यहे. 6:8) क्योंकि प्रभु अपना वचन पृथ्वी पर पूरा करके, धार्मिकता से शीघ्र उसे सिद्ध करेगा।” जैसा यशायाह ने पहले भी कहा था, “यदि सेनाओं का प्रभु हमारे लिये कुछ वंश न छोड़ता, तो हम सदोम के समान हो जाते, और गमोरा के सरीखे ठहरते।” (यशा. 1:9) तो हम क्या कहें? यह कि अन्यजातियों ने जो धार्मिकता की खोज नहीं करते थे, धार्मिकता प्राप्त की अर्थात् उस धार्मिकता को जो विश्वास से है; परन्तु इस्राएली; जो धार्मिकता की व्यवस्था की खोज करते हुए उस व्यवस्था तक नहीं पहुँचे। किस लिये? इसलिए कि वे विश्वास से नहीं, परन्तु मानो कर्मों से उसकी खोज करते थे: उन्होंने उस ठोकर के पत्थर पर ठोकर खाई। जैसा लिखा है, “देखो मैं सिय्योन में एक ठेस लगने का पत्थर, और ठोकर खाने की चट्टान रखता हूँ, और जो उस पर विश्वास करेगा, वह लज्जित न होगा।” (यशा. 28:16)
रोमियों 9:16-33 सरल हिन्दी बाइबल (HSS)
इसलिये यह मनुष्य की इच्छा या प्रयासों पर नहीं, परंतु परमेश्वर की कृपादृष्टि पर निर्भर है. पवित्र शास्त्र में फ़रोह को संबोधित करते हुए लिखा है: “तुम्हारी उत्पत्ति के पीछे मेरा एकमात्र उद्देश्य था तुममें मेरे प्रताप का प्रदर्शन कि सारी पृथ्वी में मेरे नाम का प्रचार हो.” इसलिये परमेश्वर अपनी इच्छा के अनुसार अपने चुने हुए जन पर कृपा करते तथा जिसे चाहते उसे हठीला बना देते हैं. संभवतः तुममें से कोई यह प्रश्न उठाए, “तो फिर परमेश्वर हममें दोष क्यों ढूंढ़ते हैं? भला कौन उनकी इच्छा के विरुद्ध जा सकता है?” तुम कौन होते हो कि परमेश्वर से वाद-विवाद का दुस्साहस करो? क्या कभी कोई वस्तु अपने रचनेवाले से यह प्रश्न कर सकती है, “मुझे ऐसा क्यों बनाया है आपने?” क्या कुम्हार का यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही पिंड से एक बर्तन अच्छे उपयोग के लिए तथा एक बर्तन साधारण उपयोग के लिए गढ़े? क्या हुआ यदि परमेश्वर अपने क्रोध का प्रदर्शन और अपने सामर्थ्य के प्रकाशन के उद्देश्य से अत्यंत धीरज से विनाश के लिए निर्धारित पात्रों की सहते रहे? इसमें उनका उद्देश्य यही था कि वह कृपापात्रों पर अपनी महिमा के धन को प्रकाशित कर सकें, जिन्हें उन्होंने महिमा ही के लिए पहले से तैयार कर लिया था; हमें भी, जो उनके द्वारा बुलाए गए हैं, मात्र यहूदियों ही में से नहीं, परंतु गैर-यहूदियों में से भी. जैसा कि वह भविष्यवक्ता होशे के अभिलेख में भी कहते हैं: “मैं उन्हें ‘अपनी प्रजा’ घोषित करूंगा, जो मेरी प्रजा नहीं थे; तथा उन्हें ‘प्रिय’ संबोधित करूंगा, जो प्रियजन थे ही नहीं,” और, “जिस स्थान पर उनसे यह कहा गया था, ‘तुम मेरी प्रजा नहीं हो,’ उसी स्थान पर वे ‘जीवित परमेश्वर की संतान’ घोषित किए जाएंगे.” भविष्यवक्ता यशायाह इस्राएल के विषय में कातर शब्द में कहते हैं: “यद्यपि इस्राएल के वंशजों की संख्या समुद्रतट की बालू के कणों के तुल्य है, उनमें से थोड़े ही बचाए जाएंगे. क्योंकि परमेश्वर पृथ्वी पर अपनी दंड की आज्ञा का कार्य शीघ्र ही पूरा करेंगे.” ठीक जैसी भविष्यवक्ता यशायाह की पहले से लिखित बात है: “यदि स्वर्गीय सेनाओं के प्रभु ने हमारे लिए वंशज न छोड़े होते तो हमारी दशा सोदोम, और गोमोरा नगरों के समान हो जाती.” तब परिणाम क्या निकला? वे गैर-यहूदी, जो धार्मिकता को खोज भी नहीं रहे थे, उन्होंने धार्मिकता प्राप्त कर ली—वह भी वह धार्मिकता, जो विश्वास के द्वारा है. किंतु धार्मिकता की व्यवस्था की खोज कर रहा इस्राएल उस व्यवस्था के भेद तक पहुंचने में असफल ही रहा. क्या कारण है इसका? मात्र यह कि वे इसकी खोज विश्वास में नहीं परंतु मात्र रीतियों को पूरा करने के लिए करते रहे. परिणामस्वरूप उस ठोकर के पत्थर से उन्हें ठोकर लगी. ठीक जैसा पवित्र शास्त्र का अभिलेख है: “मैं ज़ियोन में एक ठोकर के पत्थर तथा ठोकर खाने की चट्टान की स्थापना कर रहा हूं. जो इसमें विश्वास रखता है, वह लज्जित कभी न होगा.”