“किन्तु कोई व्यक्ति विवेक कहाँ पा सकता है और हम कहाँ जा सकते हैं समझ पाने को ज्ञान कहाँ रहता है लोग नहीं जानते हैं, लोग जो धरती पर रहते हैं, उनमें विवेक नहीं रहता है। सागर की गहराई कहती है, ‘मुझ में विवेक नहीं।’ और समुद्र कहता है, ‘यहाँ मुझ में ज्ञान नहीं है।’ विवेक को अति मूल्यवान सोना भी मोल नहीं ले सकता है, विवेक का मूल्य चाँदी से नहीं गिना जा सकता है। विवेक ओपीर देश के सोने से अथवा मूल्यवान स्फटिक से अथवा नीलमणियों से नहीं खरीदा जा सकता है। विवेक सोने और स्फटिक से अधिक मूल्यवान है, कोई व्यक्ति अति मूल्यवान सुवर्ण जड़ित रत्नों से विवेक नहीं खरीद सकता है। विवेक मूंगे और सूर्यकांत मणि से अति मूल्यवान है। विवेक मानक मणियों से अधिक महंगा है। जितना उत्तम विवेक है कूश देश का पदमराग भी उतना उत्तम नहीं है। विवेक को तुम कुन्दन से मोल नहीं ले सकते हो। “तो फिर हम कहाँ विवेक को पाने जायें? हम कहाँ समझ सीखने जायें? विवेक धरती के हर व्यक्ति से छुपा हुआ है। यहाँ तक की ऊँचे आकाश के पक्षी भी विवेक को नहीं देख पाते हैं। मृत्यु और विनाश कहा करते है कि हमने तो बस विवेक की बाते सुनी हैं। “किन्तु बस परमेश्वर विवेक तक पहुँचने की राह को जानता है। परमेश्वर जानता है विवेक कहाँ रहता है। परमेश्वर विवेक को जानता है क्योंकि वह धरती के आखिरी छोर तक देखा करता है। परमेश्वर हर उस वस्तु को जो आकाश के नीचे है देखा करता है। जब परमेश्वर ने पवन को उसकी शक्ति प्रदान की और यह निश्चित किया कि समुद्रों को कितना बड़ा बनाना है। और जब परमेश्वर ने निश्चय किया कि उसे कहाँ वर्षा को भेजना है, और बवण्डरों को कहाँ की यात्रा करनी है। तब परमेश्वर ने विवेक को देखा था, और उसको यह देखने के लिये परखा था कि विवेक का कितना मूल्य है, तब परमेश्वर ने विवेक का समर्थन किया था। और लोगों से परमेश्वर ने कहा था कि ‘यहोवा का भय मानो और उसको आदर दो। बुराईयों से मुख मोड़ना ही विवेक है, यही समझदारी है।’”
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