“परन्तु बुद्धि कहाँ मिल सकती है? और समझ का स्थान कहाँ है? उसका मोल मनुष्य को मालूम नहीं, जीवनलोक में वह कहीं नहीं मिलती! अथाह सागर कहता है, ‘वह मुझ में नहीं है,’ और समुद्र भी कहता है, ‘वह मेरे पास नहीं है।’ शुद्ध सोने से वह मोल लिया नहीं जाता। और न उसके दाम के लिये चाँदी तौली जाती है। न तो उसके साथ ओपीर के कुन्दन की बराबरी हो सकती है; और न अनमोल सुलैमानी पत्थर या नीलमणि की। न सोना, न काँच उसके बराबर ठहर सकता है, कुन्दन के गहने के बदले भी वह नहीं मिलती। (नीति. 8:10) मूँगे और स्फटिकमणि की उसके आगे क्या चर्चा! बुद्धि का मोल माणिक से भी अधिक है। कूश देश के पद्मराग उसके तुल्य नहीं ठहर सकते; और न उससे शुद्ध कुन्दन की बराबरी हो सकती है। (नीति. 8:19) फिर बुद्धि कहाँ मिल सकती है? और समझ का स्थान कहाँ? वह सब प्राणियों की आँखों से छिपी है, और आकाश के पक्षियों के देखने में नहीं आती। विनाश और मृत्यु कहती हैं, ‘हमने उसकी चर्चा सुनी है।’ (प्रका. 9:11) “परन्तु परमेश्वर उसका मार्ग समझता है, और उसका स्थान उसको मालूम है। वह तो पृथ्वी की छोर तक ताकता रहता है, और सारे आकाशमण्डल के तले देखता-भालता है। (भज. 11:4) जब उसने वायु का तौल ठहराया, और जल को नपुए में नापा, और मेंह के लिये विधि और गर्जन और बिजली के लिये मार्ग ठहराया, तब उसने बुद्धि को देखकर उसका बखान भी किया, और उसको सिद्ध करके उसका पूरा भेद बूझ लिया। तब उसने मनुष्य से कहा, ‘देख, प्रभु का भय मानना यही बुद्धि है और बुराई से दूर रहना यही समझ है।’” (व्यव. 4:6)
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