“जब मैं ने पृथ्वी की नींव डाली, तब तू कहाँ था? यदि तू समझदार हो तो उत्तर दे। उसकी नाप किसने ठहराई, क्या तू जानता है! उस पर किसने सूत खींचा? उसकी नींव कौन सी वस्तु पर रखी गई, या किसने उसके कोने का पत्थर बिठाया, जब कि भोर के तारे एक संग आनन्द से गाते थे और परमेश्वर के सब पुत्र जयजयकार करते थे? “फिर जब समुद्र ऐसा फूट निकला मानो वह गर्भ से फूट निकला, तब किसने द्वार बन्द कर के उसको रोक दिया; जब कि मैं ने उसको बादल पहिनाया और घोर अन्धकार में लपेट दिया, और उसके लिये सीमा बाँधी, और यह कहकर बेंड़े और किवाड़ें लगा दिए, ‘यहीं तक आ, और आगे न बढ़, और तेरी उमंडनेवाली लहरें यहीं थम जाएँ’? “क्या तू ने अपने जीवन में कभी भोर को आज्ञा दी, और पौ को उसका स्थान जताया है, ताकि वह पृथ्वी के छोर को वश में करे, और दुष्ट लोग उसमें से झाड़ दिए जाएँ? वह ऐसा बदलता है जैसा मोहर के नीचे चिकनी मिट्टी बदलती है, और सब वस्तुएँ मानो वस्त्र पहिने हुए दिखाई देती हैं। दुष्टों से उनका उजियाला रोक लिया जाता है, और उनकी बढ़ाई हुई बाँह तोड़ी जाती है। “क्या तू कभी समुद्र के सोतों तक पहुँचा है, या गहिरे सागर की थाह में कभी चला फिरा है? क्या मृत्यु के फाटक तुझ पर प्रगट हुए? क्या तू घोर अन्धकार के फाटकों को कभी देखने पाया है? क्या तू ने पृथ्वी की चौड़ाई को पूरी रीति से समझ लिया है? यदि तू यह सब जानता है, तो बतला दे।
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