याकूब 3:5-18

याकूब 3:5-18 HINOVBSI

वैसे ही जीभ भी एक छोट सा अंग है और वह बड़ी–बड़ी डीगें मारती है। देखो, थोड़ी सी आग से कितने बड़े वन में आग लग जाती है। जीभ भी एक आग है; जीभ हमारे अंगों में अधर्म का एक लोक है, और सारी देह पर कलंक लगाती है, और जीवन–गति में आग लगा देती है, और नरक कुण्ड की आग से जलती रहती है। क्योंकि हर प्रकार के वन–पशु, पक्षी, और रेंगनेवाले जन्तु, और जलचर तो मनुष्य जाति के वश में हो सकते हैं और हो भी गए हैं, पर जीभ को मनुष्यों में से कोई वश में नहीं कर सकता; वह एक ऐसी बला है जो कभी रुकती ही नहीं, वह प्राणनाशक विष से भरी हुई है। इसी से हम प्रभु और पिता की स्तुति करते हैं, और इसी से मनुष्यों को जो परमेश्‍वर के स्वरूप में उत्पन्न हुए हैं शाप देते हैं। एक ही मुँह से धन्यवाद और शाप दोनों निकलते हैं। हे मेरे भाइयो, ऐसा नहीं होना चाहिए। क्या सोते के एक ही मुँह से मीठा और खारा जल दोनों निकलता है? हे मेरे भाइयो, क्या अंजीर के पेड़ में जैतून, या दाख की लता में अंजीर लग सकते हैं? वैसे ही खारे सोते से मीठा पानी नहीं निकल सकता। तुम में ज्ञानवान और समझदार कौन है? जो ऐसा हो वह अपने कामों को अच्छे चालचलन से उस नम्रता सहित प्रगट करे जो ज्ञान से उत्पन्न होती है। पर यदि तुम अपने–अपने मन में कड़वी डाह और विरोध रखते हो, तो सत्य के विरोध में घमण्ड न करना, और न तो झूठ बोलना। यह ज्ञान वह नहीं जो ऊपर से उतरता है, वरन् सांसारिक, और शारीरिक, और शैतानी है। क्योंकि जहाँ डाह और विरोध होता है, वहाँ बखेड़ा और हर प्रकार का दुष्कर्म भी होता है। पर जो ज्ञान ऊपर से आता है वह पहले तो पवित्र होता है फिर मिलनसार, कोमल और मृदुभाव और दया और अच्छे फलों से लदा हुआ और पक्षपात और कपट रहित होता है। मिलाप कराने वाले धार्मिकता का फल मेलमिलाप के साथ बोते हैं।