जिस वर्ष उज्जिय्याह राजा मरा, मैं ने प्रभु को बहुत ही ऊँचे सिंहासन पर विराजमान देखा; और उसके वस्त्र के घेर से मन्दिर भर गया। उससे ऊँचे पर साराप दिखाई दिए; उनके छ: छ: पंख थे; दो पंखों से वे अपने मुँह को ढाँपे थे और दो से अपने पाँवों को, और दो से उड़ रहे थे। वे एक दूसरे से पुकार पुकारकर कह रहे थे : “सेनाओं का यहोवा पवित्र, पवित्र, पवित्र है; सारी पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है।” और पुकारनेवाले के शब्द से डेवढ़ियों की नींवें डोल उठीं, और भवन धूएँ से भर गया। तब मैं ने कहा, “हाय! हाय! मैं नष्ट हुआ; क्योंकि मैं अशुद्ध होंठवाला मनुष्य हूँ; और अशुद्ध होंठवाले मनुष्यों के बीच में रहता हूँ, क्योंकि मैं ने सेनाओं के यहोवा महाराजाधिराज को अपनी आँखों से देखा है!” तब एक साराप हाथ में अँगारा लिये हुए, जिसे उसने चिमटे से वेदी पर से उठा लिया था, मेरे पास उड़ कर आया। उसने उससे मेरे मुँह को छूकर कहा, “देख, इसने तेरे होंठों को छू लिया है, इसलिये तेरा अधर्म दूर हो गया और तेरे पाप क्षमा हो गए।” तब मैं ने प्रभु का यह वचन सुना, “मैं किसको भेजूँ, और हमारी ओर से कौन जाएगा?” तब मैं ने कहा, “मैं यहाँ हूँ! मुझे भेज।”
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