प्रेरितों 27:33-44

प्रेरितों 27:33-44 HINOVBSI

जब भोर होने पर था, तब पौलुस ने यह कहके, सब को भोजन करने के लिए समझाया, “आज चौदह दिन हुए कि तुम आस देखते–देखते भूखे रहे, और कुछ भोजन न किया। इसलिये तुम्हें समझाता हूँ कि कुछ खा लो, जिससे तुम्हारा बचाव हो; क्योंकि तुम में से किसी के सिर का एक बाल भी न गिरेगा।” यह कहकर उसने रोटी लेकर सब के सामने परमेश्‍वर का धन्यवाद किया और तोड़कर खाने लगा। तब वे सब भी ढाढ़स बाँधकर भोजन करने लगे। हम सब मिलकर जहाज पर दो सौ छिहत्तर जन थे। जब वे भोजन करके तृप्‍त हुए, तो गेहूँ को समुद्र में फेंक कर जहाज हल्का करने लगे। जब दिन निकला तो उन्होंने उस देश को नहीं पहिचाना, परन्तु एक खाड़ी देखी जिसका किनारा चौरस था, और विचार किया कि यदि हो सके तो इसी पर जहाज को टिकाएँ। तब उन्होंने लंगरों को खोलकर समुद्र में छोड़ दिया और उसी समय पतवारों के बन्धन खोल दिए, और हवा के सामने अगला पाल चढ़ाकर किनारे की ओर चले। परन्तु दो समुद्र के संगम की जगह पड़कर उन्होंने जहाज को टिकाया, और गलही तो धक्‍का खाकर गड़ गई और टल न सकी; परन्तु पिछाड़ी लहरों के बल से टूटने लगी। तब सैनिकों का यह विचार हुआ कि बन्दियों को मार डालें, ऐसा न हो कि कोई तैर के निकल भागे। परन्तु सूबेदार ने पौलुस को बचाने की इच्छा से उन्हें इस विचार से रोका और यह कहा, कि जो तैर सकते हैं, पहले कूदकर किनारे पर निकल जाएँ; और बाकी कोई पटरों पर, और कोई जहाज की अन्य वस्तुओं के सहारे निकल जाएँ। इस रीति से सब कोई भूमि पर बच निकले।