मैं सम्राट अर्तक्षत्र का साकी था। सम्राट अर्तक्षत्र के शासन-काल के बीसवें वर्ष के नीसान महीने की बात है: शराब सम्राट के सम्मुख थी। मैंने शराब का चषक उठाकर उसको दिया। अब तक मैं उसके सम्मुख कभी उदास-मुख नहीं हुआ था। सम्राट ने मुझसे पूछा, “तुम्हारा चेहरा उदास क्यों है? क्या बीमार हो? निस्सन्देह यह मानसिक पीड़ा ही है।’ मैं यह सुनकर बहुत डर गया। मैंने सम्राट से कहा, ‘महाराज, सदा-सर्वदा जीवित रहें! महाराज, क्षमा करें; मैं उदास क्यों न होऊंगा जब कि मेरे पूर्वजों की कबरों का नगर उजाड़ पड़ा है, उसके प्रवेश-द्वार आग से जले हुए पड़े हैं?’ सम्राट ने मुझ से कहा, ‘तुम क्या चाहते हो?’ मैंने मन ही मन स्वर्गिक परमेश्वर से प्रार्थना की। तब मैंने सम्राट से यह निवेदन किया, ‘यदि महाराज को यह उचित लगे, और मुझ पर महाराज की कृपा-दृष्टि हो तो आप मुझे अपने पूर्वजों की कबरों के नगर को भेज दें ताकि मैं उसका पुन: निर्माण कर सकूं।’ सम्राट ने मुझसे कहा (सम्राज्ञी वहीं उसके पास बैठी थी), ‘तुम्हें वहां कितना समय लगेगा, और तुम कब लौटोगे?’ मैंने उसे एक निश्चित समय बताया, तो सम्राट मुझे प्रसन्नतापूर्वक भेजने को सहमत हो गया।
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