सभा-उपदेशक 1:5-16

सभा-उपदेशक 1:5-16 HINCLBSI

सूर्य उगता है, वह अस्‍त होता है, और वह शीघ्रता से उस स्‍थान को लौट जाता है जहाँ से वह उदय होता है। पवन दक्षिण दिशा की ओर बहता है, और घूम कर उत्तर में आ जाता है, और यों वह निरन्‍तर अपनी परिधि में चक्‍कर लगाता है, पवन अपनी परिधि की परिक्रमा करता है। सब सरिताएँ सागर में मिलती हैं, पर सागर भरता नहीं। नदियाँ अपने उद्गम-स्‍थल से फिरकर फिर बहती हैं। सब बातें थकानेवाली हैं, मनुष्‍य उनका वर्णन नहीं कर सकता। आंखें देखकर भी तृप्‍त नहीं होतीं, और न कान सुनकर ही संतुष्‍ट होते हैं। जो बात हो चुकी है वह फिर होगी; जो बन चुकी है वह फिर बनेगी; इस सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं है। क्‍या पृथ्‍वी पर ऐसा कुछ है, जिसके विषय में यह कहा जा सके, “देखो, यह नयी बात है?” पर वह हमसे बहुत पहले प्राचीनकाल में हो चुकी है। प्राचीनकाल की बातों की स्‍मृति वर्तमान काल में शेष नहीं रहती, और न हमारे पश्‍चात् आनेवाले लोगों को भविष्‍य की बातें याद रहेंगी। मैं− सभा-उपदेशक, इस्राएल देश का राजा था और यरूशलेम नगर में राज्‍य करता था। इस आकाश के नीचे पृथ्‍वी पर जो होता है, बुद्धि से उसकी खोजबीन करने और उसका भेद समझने के लिए मैंने अपना मन लगाया। यह एक कष्‍टप्रद कार्य है, जिसे परमेश्‍वर ने मनुष्‍यों को इसी कार्य में व्‍यस्‍त रहने के लिए सौंपा है। जो कुछ सूर्य के नीचे धरती पर होता है, वह सब मैंने देखा है। मुझे अनुभव हुआ कि यह सब निस्‍सार है− यह मानो हवा को पकड़ना है। जो कुटिल है, वह सीधा नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, वह गिना नहीं जा सकता। मैंने अपने हृदय से कहा, ‘देख, तूने बहुत ज्ञान प्राप्‍त कर लिया है, इतना कि तेरा ज्ञान उन सब राजाओं से बढ़ गया, जो तुझसे पहले यरूशलेम में हुए थे। तुझे बहुत बुद्धि और ज्ञान का अनुभव हो चुका है।”