पौलुस ने धर्म-महासभा की ओर एकटक दृष्टि से देखा, और कहा, “भाइयो! मैं इस दिन तक परमेश्वर की दृष्टि में शुद्ध अन्त:करण से जीवन व्यतीत करता रहा।” इस पर प्रधान महापुरोहित हनन्याह ने पास खड़े लोगों को आदेश दिया कि वे पौलुस के मुंह पर थप्पड़ मारें। पौलुस ने उससे कहा, “परमेश्वर तुम को मारेगा! तुम पुती हुई दीवार हो! तुम व्यवस्था के अनुसार मेरा न्याय करने बैठे हो और तुम व्यवस्था का उल्लंघन कर मुझे मारने का आदेश देते हो।” पास खड़े लोग पौलुस से बोले, “तुम परमेश्वर के प्रधान महापुरोहित को अपशब्द कह रहे हो?” पौलुस ने उत्तर दिया, “भाइयो! मैं नहीं जानता था कि यह प्रधान महापुरोहित हैं। धर्मग्रंथ में लिखा है : ‘अपनी प्रजा के शासक की निन्दा मत करना’।” पौलुस यह जानते थे कि धर्म-महासभा में दो दल हैं : एक सदूकियों का और दूसरा फ़रीसियों का। इसलिए उन्होंने पुकार कर कहा, “भाइयो! मैं हूँ फ़रीसी और फरीसियों की सन्तान! मृतकों के पुनरुत्थान की आशा के कारण मुझ पर मुकदमा चल रहा है।” उनका यह कहना था कि फ़रीसियों तथा सदूकियों में विवाद होने लगा और सभा में फूट पड़ गयी; क्योंकि सदूकियों की धारणा है कि न तो पुनरुत्थान है, न स्वर्गदूत और न आत्मा। परन्तु फ़रीसी इन सब पर विश्वास करते हैं। इस प्रकार बड़ा कोलाहल मच गया। फ़रीसी दल के कुछ शास्त्री उठकर झगड़ने और यह कहने लगे, “हम इस मनुष्य में कोई दोष नहीं पाते। यदि कोई आत्मा अथवा स्वर्गदूत इससे कुछ बोला हो, तो....।” जब विवाद बहुत बढ़ गया तो सेना-नायक को भय हुआ कि कहीं वे पौलुस के टुकड़े-टुकड़े न कर दें; इसलिए उसने सैनिकों को आदेश दिया कि वे सभा में नीचे जा कर पौलुस को उनके बीच से निकाल लें और किले में ले जायें। उसी रात प्रभु ने पौलुस के समीप खड़े होकर कहा, “निर्भय हो! जैसे तूने यरूशलेम में मेरे विषय में साक्षी दी है, वैसे ही तुझे रोम में भी साक्षी देनी होगी।”
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