शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं। यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? यदि कान कहे, “मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता? वास्तव में परमेश्वर ने अपनी इच्छानुसार प्रत्येक अंग को शरीर में स्थान दिया है। यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी एक ही शरीर होता है। आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं”, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं।” वरन् इसके विपरीत, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। शरीर के जिन अंगों को हम कम आदरणीय समझते हैं, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं। हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, परमेश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है। यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।
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