प्रेरितों 28:17-31

प्रेरितों 28:17-31 HSS

तीन दिन बाद उन्होंने यहूदी अगुओं की एक सभा बुलाई. उनके इकट्ठा होने पर पौलॉस ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा, “मेरे प्रिय भाइयो, यद्यपि मैंने स्वजातीय यहूदियों तथा हमारे पूर्वजों की प्रथाओं के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया है फिर भी मुझे येरूशलेम में बंदी बनाकर रोमी सरकार के हाथों में सौंप दिया गया है. मेरी जांच करने के बाद वे मुझे रिहा करने के लिए तैयार थे क्योंकि उन्होंने मुझे प्राण-दंड का दोषी नहीं पाया. किंतु जब यहूदियों ने इसका विरोध किया तो मुझे मजबूर होकर कयसर के सामने दोहाई देनी पड़ी—इसलिये नहीं कि मुझे अपने राष्ट्र के विरुद्ध कोई आरोप लगाना था. मैंने आप लोगों से मिलने की आज्ञा इसलिये ली है कि मैं आपसे विचार-विमर्श कर सकूं, क्योंकि यह बेड़ी मैंने इस्राएल की आशा की भलाई में धारण की है.” उन्होंने पौलॉस को उत्तर दिया, “हमें यहूदिया प्रदेश से आपके संबंध में न तो कोई पत्र प्राप्‍त हुआ है और न ही किसी ने यहां आकर आपके विषय में कोई प्रतिकूल सूचना दी है. हमें इस मत के विषय में आपसे ही आपके विचार सुनने की इच्छा थी. हमें मालूम है कि हर जगह इस मत का विरोध हो रहा है.” तब इसके लिए एक दिन तय किया गया और निर्धारित समय पर बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर आए. सुबह से लेकर शाम तक पौलॉस सच्चाई से परमेश्वर के राज्य के विषय में शिक्षा देते रहे तथा मसीह येशु के विषय में मोशेह की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं के लेखों से स्पष्ट करके उन्हें दिलासा दिलाते रहे. उनकी बातों को सुनकर उनमें से कुछ तो मान गए, किंतु कुछ अन्यों ने इसका विश्वास नहीं किया. जब वे एक दूसरे से सहमत न हो सके तो वे पौलॉस की इस अंतिम बात को सुनकर जाने लगे: “भविष्यवक्ता यशायाह ने पवित्र आत्मा के द्वारा आप लोगों के पूर्वजों पर एक ठीक सच्चाई ही प्रकाशित की थी: “ ‘इन लोगों से जाकर कहो, “तुम लोग सुनते तो रहोगे, किंतु समझोगे नहीं. तुम लोग देखते भी रहोगे, किंतु पहचान न सकोगे.” क्योंकि इन लोगों का हृदय जड़ हो चुका है. अपने कानों से वे कदाचित ही कुछ सुन पाते हैं और आंखें तो उन्होंने मूंद ही रखी हैं, कि कहीं वे आंखों से देख न लें और कानों से सुन न लें और अपने हृदय से समझकर लौट आएं और मैं, परमेश्वर, उन्हें स्वस्थ और पूर्ण बना दूं.’ “इसलिये यह सही है कि आपको यह मालूम हो जाए कि परमेश्वर का यह उद्धार अब गैर-यहूदियों के लिए भी मौजूद है. वे भी इसे स्वीकार करेंगे.” [उनकी इन बातों के बाद यहूदी वहां से आपस में झगड़ते हुए चले गए.] पौलॉस वहां अपने भाड़े के मकान में पूरे दो साल रहे. वह भेंट करने आए व्यक्तियों को पूरे दिल से स्वीकार करते थे. वह निडरता से, बिना रोक-टोक के, पूरे साफ़-साफ़ शब्दों में परमेश्वर के राज्य का प्रचार करते और प्रभु येशु मसीह के विषय में शिक्षा देते रहे.