YouVersion Logo
Search Icon

भजन संहिता 104

104
सृष्टिकर्ता की स्तुति
1हे मेरे मन, तू यहोवा को धन्य कह!
हे मेरे परमेश्वर यहोवा,
तू अत्यन्त महान है!
तू वैभव और ऐश्वर्य का वस्त्र पहने हुए है,
2तू उजियाले को चादर के समान ओढ़े रहता है,
और आकाश को तम्बू के समान ताने रहता है,
3तू अपनी अटारियों की कड़ियाँ जल में धरता है,
और मेघों को अपना रथ बनाता है,
और पवन के पंखों पर चलता है,
4तू पवनों को अपने दूत,
और धधकती आग को अपने सेवक बनाता है। (इब्रा. 1:7)
5तूने पृथ्वी को उसकी नींव पर स्थिर किया है,
ताकि वह कभी न डगमगाए।
6तूने उसको गहरे सागर से ढाँप दिया है जैसे वस्त्र से;
जल पहाड़ों के ऊपर ठहर गया।
7तेरी घुड़की से वह भाग गया;
तेरे गरजने का शब्द सुनते ही, वह उतावली करके बह गया।
8वह पहाड़ों पर चढ़ गया, और तराइयों के मार्ग से उस स्थान में उतर गया
जिसे तूने उसके लिये तैयार किया था।
9तूने एक सीमा ठहराई जिसको वह नहीं लाँघ सकता है,
और न लौटकर स्थल को ढाँप सकता है।
10 तू तराइयों में सोतों को बहाता है#104:10 तू तराइयों में सोतों को बहाता है: यद्यपि पानी समुद्र में भरता है, परमेश्वर ने फिर भी ध्यान रखा है कि पृथ्वी सूखी, निर्जल और ऊसर न रहे। उसने उसकी सींचाई कि व्यवस्था की है। ;
वे पहाड़ों के बीच से बहते हैं,
11उनसे मैदान के सब जीव-जन्तु जल पीते हैं;
जंगली गदहे भी अपनी प्यास बुझा लेते हैं।
12उनके पास आकाश के पक्षी बसेरा करते,
और डालियों के बीच में से बोलते हैं। (मत्ती 13:32)
13तू अपनी अटारियों में से पहाड़ों को सींचता है,
तेरे कामों के फल से पृथ्वी तृप्त रहती है।
14तू पशुओं के लिये घास,
और मनुष्यों के काम के लिये अन्न आदि उपजाता है,
और इस रीति भूमि से वह भोजन-वस्तुएँ उत्पन्न करता है
15और दाखमधु जिससे मनुष्य का मन आनन्दित होता है,
और तेल जिससे उसका मुख चमकता है,
और अन्न जिससे वह सम्भल जाता है।
16यहोवा के वृक्ष तृप्त रहते हैं,
अर्थात् लबानोन के देवदार जो उसी के लगाए हुए हैं।
17उनमें चिड़ियाँ अपने घोंसले बनाती हैं;
सारस का बसेरा सनोवर के वृक्षों में होता है।
18ऊँचे पहाड़ जंगली बकरों के लिये हैं;
और चट्टानें शापानों के शरणस्थान हैं।
19 उसने नियत समयों के लिये चन्द्रमा को बनाया है#104:19 उसने नियत समयों के लिये चन्द्रमा को बनाया है: चाँद और सूर्य परमेश्वर के समय में यथास्थान हैं।;
सूर्य अपने अस्त होने का समय जानता है।
20तू अंधकार करता है, तब रात हो जाती है;
जिसमें वन के सब जीव-जन्तु घूमते-फिरते हैं।
21जवान सिंह अहेर के लिये गर्जते हैं,
और परमेश्वर से अपना आहार माँगते हैं।
22सूर्य उदय होते ही वे चले जाते हैं
और अपनी माँदों में विश्राम करते हैं।
23तब मनुष्य अपने काम के लिये
और संध्या तक परिश्रम करने के लिये निकलता है।
24हे यहोवा, तेरे काम अनगिनत हैं!
इन सब वस्तुओं को तूने बुद्धि से बनाया है;
पृथ्वी तेरी सम्पत्ति से परिपूर्ण है।
25इसी प्रकार समुद्र बड़ा और बहुत ही चौड़ा है,
और उसमें अनगिनत जलचर जीव-जन्तु,
क्या छोटे, क्या बड़े भरे पड़े हैं।
26उसमें जहाज भी आते-जाते हैं,
और लिव्यातान भी जिसे तूने वहाँ खेलने के लिये बनाया है।
27इन सब को तेरा ही आसरा है,
कि तू उनका आहार समय पर दिया करे।
28तू उन्हें देता है, वे चुन लेते हैं;
तू अपनी मुट्ठी खोलता है और वे उत्तम पदार्थों से तृप्त होते हैं।
29तू मुख फेर लेता है, और वे घबरा जाते हैं;
तू उनकी साँस ले लेता है, और उनके प्राण छूट जाते हैं
और मिट्टी में फिर मिल जाते हैं।
30फिर तू अपनी ओर से साँस भेजता है, और वे सिरजे जाते हैं;
और तू धरती को नया कर देता है#104:30 तू धरती को नया कर देता है: पृथ्वी को निर्जन नहीं रखा गया है। एक पीढ़ी समाप्त होती है तो दूसरी पीढ़ी आ जाती है।
31यहोवा की महिमा सदाकाल बनी रहे,
यहोवा अपने कामों से आनन्दित होवे!
32उसकी दृष्टि ही से पृथ्वी काँप उठती है,
और उसके छूते ही पहाड़ों से धुआँ निकलता है।
33मैं जीवन भर यहोवा का गीत गाता रहूँगा;
जब तक मैं बना रहूँगा तब तक अपने परमेश्वर का भजन गाता रहूँगा।
34मेरे सोच-विचार उसको प्रिय लगे,
क्योंकि मैं तो यहोवा के कारण आनन्दित रहूँगा।
35पापी लोग पृथ्वी पर से मिट जाएँ,
और दुष्ट लोग आगे को न रहें!
हे मेरे मन यहोवा को धन्य कह!
यहोवा की स्तुति करो!

Highlight

Share

Copy

None

Want to have your highlights saved across all your devices? Sign up or sign in

YouVersion uses cookies to personalize your experience. By using our website, you accept our use of cookies as described in our Privacy Policy